एक समय की बात है गुरु मत्स्येंद्रनाथ घूमते घूमते भिक्षा मांगते हुए अयोध्या नगरी के पास जय श्री नगर में गए। वह वहां विश्राम करने के बाद एक ब्राह्मण के घर पहुंचे।
उन्होंने भिक्षा मांगने के लिए अलख निरंजन की आवाज निकाली। उनकी आवाज सुनते ही ब्राह्मणी बाहर आई। मत्स्येंद्रनाथ बहुत ही महान व्यक्ति थे। उन्हें ब्रह्माणी के मुख पर पतिव्रत का अपूर्व तेज देखा।
उसको देखकर मत्स्येंद्रनाथ को बड़ी प्रसन्नता हुई परंतु इसी के साथ उन्हें उस स्त्री के चेहरे पर उदासी का भाव दिखाई पड़ा। जब उन्होंने इसका कारण पूछा तो ब्रह्माणी ने निसंकोच भाव से उसे अपना दुख व्यक्त और बताया कि मेरी संतान न होने से संसार फीका जान पड़ता है ।
मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी झोली से थोड़ी सी विभूति निकाली और ब्राह्मणी के हाथ पर उसे रखते हुए कहा तुम इसे खा लो। तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।
इतना कहकर मत्स्येद्रनाथ वहां से चले गए। इधर ब्रह्माणी के मन में डर उत्पन्न हो गया। उससे किसी बाहरी पुरुष की बातों पर विश्वास नहीं था। वह अपनी पड़ोसन के पास गई और उसने अपनी सारी बात उसे बताइ। पड़ोसन ने ब्रह्माणी को और डरा दिया और विभूति खाने से मना कर दिया।
उसने विभूति को एक गड्ढे में फेंक दिया। 12 वर्ष बाद मत्स्येंद्रनाथ वहां से पुनः वापस आए। और उन्होंने उसी स्त्री के घर जाकर अलख निरंजन की आवाज निकाली। ब्रह्माणी के बाहर आने पर उन्होंने कहा कि अब तो तेरा बेटा 12 वर्ष का हो गया होगा।
बुला वह कहां है यह सुनते ही वह घबरा गई और उसने सब हाल मत्स्येद्रनाथ को बता दिया मत्स्येद्रनाथ उसके साथ गड्ढे के पास गए और वहां अलख शब्द किया। उसे सुनते ही 12 वर्ष का तेजपुंज बालक वहां प्रकट हो गया और मत्स्येद्रनाथ के चरणों पर सिर रखकर प्रणाम करने लगा।
इसी बालक का नाम मत्स्येद्रनाथ ने गोरखनाथ रखा था। यह घटना रायबरेली जिले के अंतर्गत जायस नामक कस्बे में हुई थी। मराठी भाषा में लिखित नवनाथ भक्तिसार नामक ग्रंथ में उल्लेख है ।
योगीराज गोरखनाथ के जन्म स्थान संवत माता-पिता आदि का सही विवरण प्राप्त नहीं है। कश्मीर से सिंघल असम से काठियावाड़ उनके बारे में तरह-तरह की कहानियां प्रचलित हैं। अधिकांश लेखक उन्हें 11 वीं या 12 वीं शताब्दी का मानते हैं । कुछ लोग इन्हें 10वीं से 11वीं शताब्दी का भी मानते हैं। कुछ लोगों के अनुसार यह ही नाथ संप्रदाय के संपादक हैं।
नाथ संप्रदाय के संत या लोग जनश्रुतियों के आधार पर उन्हें सहस्त्र वर्षों के व्यक्ति मानते हैं। गोरखनाथ का जन्म स्थान सर्व श्री मोहन सिंह टेरिटरी ग्रियर्सन जयशंकर मिश्र लागे राघव आदि विद्वान रावलपिंडी में मानते हैं। जो आजकल पाकिस्तान में है।
कुछ लोगों का मानना है कि जिस गांव में बाबा गोरखनाथ ने जन्म लिया था उस गांव का नाम बाद में गोरखपुर कर दिया गया। डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा राघव राघव इनको ब्राह्मण वंश का मानते हैं। डॉ राघव राघव ने अपने गोरखनाथ नामक पुस्तक में उल्लेख किया है कि गोरखनाथ के काफी पूर्व नाथ संप्रदाय की उत्पत्ति हो गई थी।
बचपन से ही इन पर घुमक्कड़ नाथ सिद्ध का प्रभाव पड़ा था। बरहाल जो भी हो पर बात है कि नाथ पंथ के प्रचार प्रसार में आपका सशक्त योगदान है। गोरखनाथ अपने गुरु के बताए अनुसार बहुत से स्थानों पर साधना करते रहे।
नेपाल में बाबा गोरखनाथ जहां साधना करते रहे, वह गुफा आज भी वहां मौजूद है। गोरखनाथ की सिद्ध गुफा के नाम से उस स्थान को प्रसिद्धि मिली है। उज्जैन में भी गोरखनाथ की गुफाएं हैं । जहां साधक लोग जाते हैं और श्रद्धालु पूजा करते हैं।
गोरखपुर महा सिद्ध हठयोगी बाबा गोरखनाथ की प्रसिद्ध तपस्थली एवं साधना स्थली रही है। आज भी उस स्थान पर इनका एक विशाल एवं भव्य मंदिर प्रतिष्ठित है। इसके अलावा काठियावाड़, शार्क दीप, गोरखपुर, गोरखमुंडी, पाटन में भी गोरखनाथ की पूजा होती है।
गोरख जाति और गोरखा राज्य के रक्षक के रूप में गोरखनाथ को महापुरुष माना जाता है और उनकी पूजा की जाती है गोरखनाथ केवल योगी ही नहीं थे वरन बड़े विद्वान और कवि भी थे।
उनकी अनेक रचनाएं हैं संस्कृत भाषा में गोरख कल, गोरख संहिता, गोरख सहस्त्रनाम, गोरख शतक, गोरख गीता आदि अनेक ग्रंथ मिलते हैं। हिंदी में गोरखवानी जैसी काव्य रचनाएं काफी प्रचलित है।
गोरखनाथ के दो प्रधान शिष्य हुए हैं। गहिनीनाथ और चरपतिनाथ इनके साथ ही जालंधर नाथ, चौरंगीनाथ, गोपीचंद्र, निवृत्तीनाथ, गम भरे नाथ, संत ज्ञानेश्वर आदि योग संपन्न अनेक योगी नाथ संप्रदाय में हुए हैं।
वस्तुतः गोरखनाथ महायोगी के साथ-साथ धर्म के श्रेष्ठ प्रचारक थे। संपूर्ण भारत में उन्होंने नागरिकों को पुनः अपने योगिक शक्ति के द्वारा शिवभक्त बनाया। कहा जाता है कि राजा भृतहरि भी बाबा गोरखनाथ के शिष्य थे। जो रानी पिंगला के विरह में व्याकुल होकर गोरखनाथ के शरण में आए थे ।
उत्तर भारत में योगी आज भी सारंगी बजाते हुए गाते हैं भिक्षा दे माई पिंगला गेरुआ रंग का धोती कुर्ता और सिर पर पगड़ी बांधे रहते हैं। शहर और गांव सर्वत्र इनकी सारंगी बजती है।
नेपाल में गोरखा नामक एक लड़ाकू जाती है जिनके परिवार के अधिकांश सदस्य सैनिक बनते हैं। इन लोगों का कहना है कि गोरखनाथ जी हमारे यहां 12 वर्ष तक तपस्या करते रहे। तपस्या भूमि नाम गोरखा है इन्हीं के नाम पर बसे स्थान के कारण गोरख जाति की उत्पत्ति हुई।