भगवान शंकर की भक्ति और महामृत्युंजय मंत्र का फल एवं प्रभाव

भगवान शिव के सूर्य चंद्र अग्नि रूप तीन नेत्र के कारण इन्हें त्रियंबक नाम से संबोधित किया जाता है। सनातन धर्म प्रेमियों में अनंत देवी देवताओं की पूजा उपासना अर्चना अपनी अपनी श्रद्धा निष्ठा एवं फल आकांक्षाओं की प्राप्ति हेतु की जाती है।

मगर उन सब में भगवान आशुतोष (शंकर) की उपासना सर्वोपरि मानी जाती है। ब्रह्मा विष्णु महेश क्रमशः सृष्टि में स्थिति एवं संहार के देवता माने जाते है। और उनकी वंदना की जाती हैं।

अभिषेक प्रिय भगवान शंकर देवाधिदेव की एक अलग से पहचान है। शमशान बिहारी भूत पिचास के सहचार्य, मुंडमाला, बाघम्बर धारी है।

भोले बाबा सचमुच बड़े भोले हैं। अमंगल हारी भगवान आशुतोष अपने उस भक्तों को जो श्रद्धा निष्ठा एवं संपूर्ण समर्पित भाव से आत्म विमोर होकर एक बार जय भोले बम भोले अथवा ओम नमः शिवाय कहकर उनको मात्र एक बेल पत्र चढ़ाकर उन्हें पुकारता है, वह उस पर रीझ जाते हैं।

ऐसे आत्मसमर्पण आत्मज पर कोई जिस भाव से भक्ति करता है, याचना करता है, भक्ति की शक्ति रखता है। उसी पर उसी समय प्रसन्न हो जाते हैं।

अपने ऐसे भक्तों के लिए उनका पर्याप्त अक्षय भंडार सदैव सदैव के लिए खुला है। जो चाहो तो ले लो और इनके इसी भोलेपन के स्वरूप भगवती जगदंबा मां अन्नपूर्णा अन्ना धन आदि की वृद्धि करती है।

वहां कुमारिया की मनवांछित अभिलाषा की भी शीघ्र पूर्ति करते है और तो इसके सर्वप्रथम वंदनीय पूजनीय पुत्र गणपति जी का तो कहना ही क्या, अपने माता-पिता के यथा गुण एवं आशीर्वाद फल स्वरुप ऋण मोचन में संकट हरण एवं अभीष्ट सिद्धियों एवं फलों को प्रदान करने वाले हैं।

समस्त शिव परिवार अपने भक्तों के कल्याण के लिए शीघ्र सदैव तत्परता के लिए प्रसिद्ध है। जीव के जन्म से ही मृत्यु की अनुचरी शक्तियां उसे उसी कारण से ही घेर लेती है। जीवन में था और मृत्यु सत्य है।

अबोध अवस्था में अज्ञानता वश जीव को उसका बोध नहीं होता। ज्ञान नहीं होता । क्योंकि न तो ज्ञान ही होता और नहीं कर्म करने की पर्याप्त शक्ति अथवा प्रवृत्ति।

इसीलिए इच्छाशक्ति का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। इससे मृत्युमय नश्वर भौतिक शरीर संसार के अनगिनत शक्तियों के हाथ की कठपुतली हो नवजात शिशु अपने जन्मदाता माता पिता पर निर्भर होता है।

क्योंकि उसके शरीर के वही प्रथम संरक्षक होते हैं। जीव के ऐसे अधीन अवस्था में इस अमृत्य लोक में जीव सदैव मृत्यु के हाथों अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के फल स्वरुप पराधीन होता है।बेबस रहता है।

जन्मदाता संरक्षक अभिभावक किसी सीमा तक शारीरिक निरोगता तथा रक्षा कर सकते हैं। सहायतारत रहने का प्रयास कर सकते हैं। मगर कर्माअधीन मृत्यु का ग्रास बनाने से नहीं रोक सकते ।

मृत्यु को जीतने का उपाय उनके पास नहीं। मात्र अगर निदान है तो केवल शिव उपासना अर्चना प्रार्थना।

जिसे ऋषि मार्कंडेय ने अपने बाल्यकाल में ही अपनाकर साधना करके अजर अमर कहलाने का गौरव प्राप्त किया। जिसके लिए स्वयं भगवान शंकर ने प्रकट होकर काल को उस बालक से दूर रहने का आदेश दिया।

मात्र 12 वर्ष की आयु पाने वाला बालक मार्कंडेय अपने पिता के कहने पर अल्पायु में शिव तपस्या में रत रहकर शिव तत्व को प्राप्त हुआ।

महामृत्युंजय मंत्र

ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ।

यह यही मंत्र है जिसे स्वयं भगवान शंकर ने भगवान विष्णु को महामृत्युंजय नाम से प्रदत किया।

पुराणों में एक प्रसिद्ध कथा है भगवान शंकर की प्रसन्नता प्राप्ति हेतु भगवान विष्णु ने सहस्त्र कमलों से अभिषेक प्रारंभ किया। पूजा के अंत में एक कमल कम हो गया। कमलनयन भगवान विष्णु समझ गए।

अपने अनुष्ठान की निर्विघ्न संपन्नता एवं अपने इष्ट की प्रशंसा एवं प्राप्ति हेतु बाण की नोक से अपने एक कमलनयन को निकाल कर उसे कमल पुष्पों में सम्मिलित कर प्रभु शंकर को समर्पित करके अनुष्ठान संपन्न किया।

भोले बाबा विष्णु के इस अलौकिक समर्पित भाव से गदगद हो गए। प्रसन्न होकर प्रकट हुये। विष्णु भगवान की निष्ठा भक्ति को देख पुनः नेत्रदान दिया।

व अमोघ जन कल्याण हेतु असुरों के संघार एवं बचाव हेतु अमृत तत्व प्राप्ति के लिए महामृत्युंजय मंत्र प्रदत्त किया। वही मंत्र भगवान विष्णु ने देवताओं में अजर अमर रहने के लिए पुनः प्रसार किया।

ऋषि शुक्राचार्य से इसकी महत्वता को जाना। इसके उपयोग से ऋषि दधीचि ने अपना शरीर वज्र समान करके राजा सरुव को परास्त किया।

जब स्वयं भगवान विष्णु भी राजा सरुव की सहायतार्थ आकर अपने चक्र का प्रहार ऋषि दधीचि पर किया तो महामृत्युंजय मंत्र के प्रभाव से ऋषि दधीचि पर सुदर्शन चक्र अप्रभावित सिद्ध हुआ।

जब भगवान विष्णु के दधीचि पर सुदर्शन चक्र का प्रहार पूर्णता आप्रभावित सिद्ध हुआ। तब भगवान विष्णु को दधीचि ने मंत्र से अपना विराट स्वरूप दिखलाया। तब विष्णु एवं सरुव उनके आगे नतमस्तक हो गए।

इसके उपरांत इंद्र ने तेजस्वी ऋषि दधीचि से उनकी वज्र अस्थियों को दान स्वरूप लेकर उनके अस्त्र बनाकर राक्षसों का नाश किया। इस मंत्र का जाप करने वाले भगवान शिव शंकर के प्रति अपने आप को समर्पित करते हुए उनसे अपना संबंध जोड़ते हैं और अंधकार से प्रकाश की ओर उद्धत होने की याचना करते हैं।

ॐ नमः शिवायः

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