आसन का अर्थ, महत्व, एवं उद्देश्य

आसन का अर्थ

आसन का पहला अर्थ बैठने का स्थान से है और आसन से दूसरा अभिप्राय शरीर की अवस्था से है। बैठने से अभिप्राय दरी, मृगछाल , चटाई आदि से है अर्थात जिसके ऊपर हम बैठते हैं।

आसन का दूसरे अर्थ से अभिप्राय सुख पूर्वक शांति पूर्वक एवं स्थिर पूर्वक बैठने से है अर्थात वह अवस्था जिसमें आपका शरीर मन एवं आत्मा स्थिर हो और संतुलित हो उसी को आसन कहा गया है।

पातंजल योग सूत्र में महर्षि पतंजलि ने आसनों की व्याख्या न करते हुए केवल एक सूत्र प्रतिपादित किया और आसन के अर्थ को समझाया है, महर्षि पतंजलि ने अपने अष्टांग योग में आसन को योग का तीसरा अंग बताया है।

महर्षि पतंजलि के अनुसार आसान की परिभाषा – पतंजलि कहते हैं-
स्थिरसुखमासनम् – योगसूत्र 2/46
अर्थात जिस आसान में साधक लंबे समय तक आंतरिक एवं बाह्य रूप से सुख और शांति पूर्वक स्थिर होकर बैठ सके आसन कहलाता है।

श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार आसन की परिभाषा

गीता में भगवान कहते हैं कि कमर से गले तक का भाग सीधा करके बैठना और नासिका के अग्रभाग को देखते हुए स्थिर पूर्वक बैठना आसन कहलाता है।

आसनों के अभ्यास की आवश्यकता क्यों ?
आसनों का अभ्यास इसलिए किया जाता है ताकि प्राणायाम के लिए हमारा शरीर तैयार हो जाए। जब हम सुख पूर्वक स्थिर पूर्वक बैठते हैं तो हमारे मन, शरीर , आत्मा एवं श्वसन पर नियंत्रण हो जाता है और वही नियंत्रण प्राणायाम के लिए जरूरी होता है, सजक रूप से अभ्यास करने पर प्राणायाम सिद्ध होता है। इसलिए आसनों के अभ्यास की आवश्यकता है।

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