नियम के भेद और मुख्य जानकारी

योग के आठ अंगों में से नियम दूसरा अंग है। सभी ग्रंथों के अनुसार नियम के भेद अलग-अलग है । यहां पर योगसूत्र की चर्चा करते हैं। पतंजलि योग सूत्र में नियम के पांच भेद हैं -शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान यह 5 नियम बताए गए हैं आइए इन्हें विस्तार से समझते हैं, इनमें से सबसे पहला नियम है

शौच

यहां पर शौच का तात्पर्य शुद्धि से है। योग सूत्र के अनुसार दो प्रकार के शौच कहे गए हैं। पहला आंतरिक और दूसरा बाहरी शौच। आंतरिक से तात्पर्य मन के सभी विकारों को दूर करना। अपने मन में बुरे विचारों का त्याग करना और हमेशा सत्य का पालन करना। सच्चाई का साथ देना। आध्यात्मिकता होना। साथ ही मन की शुद्धि को आंतरिक शौच कहा गया है। बाहरी सोच मन की शुद्धि के साथ शारीरिक शुद्धि भी आवश्यक है। यहां पर शरीर की सफाई और शारीरिक स्वास्थ्य पर ध्यान दिया गया है शरीर को बलपूर्वक बनाना और शुद्ध विचारों से शरीर की शुद्धि करना।

संतोष

कर्म करते हुए उन कर्मों का जो फल है। उस फल को प्राप्त करें। उसी में खुश रहना, अर्थात जितना अपने पास है, उतने में खुश रहना और संतुष्ट रहना। इससे और ज्यादा ना चाहना संतुष्टि बनाए रखना ही संतोष है। इससे व्यक्ति के जीवन में शांति और सुख बना रहता है और इससे व्यक्ति को मानसिक सुख प्राप्त होता है।

तप

तप का तात्पर्य परिश्रम से है। व्यक्ति को तप करना अत्यंत आवश्यक है। परिश्रम के द्वारा ही उसे सुख की प्राप्ति होती है। जब व्यक्ति तप में लीन होता है। तो उसे शीतोष्ण द्वंद और किसी भी चीज का कुछ पता नहीं रहता। वह अपने कार्य में इस तरह लीन हो जाता है। मानो वही उसका लक्ष्य हो और यही असली तप है। अपने कार्य में निपुणता अपने कार्य को निष्ठा आदर पूर्वक करना उसमें आस्था रखना ही तप कहलाता है। शरीर को तपाना, कष्ट सहन, साहस करना और ज्ञान सादगी प्राप्त करना ही तप कहलाता है।

स्वाध्याय

भक्ति पूर्वक स्वयं का अध्ययन करना। पुस्तके पढ़ना। ग्रंथों का अध्ययन करना। उनके बारे में जानना और उन में लीन हो जाना। उन्हें अपने जीवन में उतार लेना, ज्ञान प्राप्त करने को स्वाध्याय कहा जाता है। योग सूत्र में धार्मिक ग्रंथों को पढ़ना स्वाध्याय कहा गया है। धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने से मन में आध्यात्मिकता आती है। ईश्वर की तरफ ध्यान जाता है और मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है। प्रत्येक व्यक्ति को स्वाध्याय करना चाहिए।

ईश्वर प्राणिधान

ईश्वर प्राणीधान से तात्पर्य ईश्वर का ध्यान करना। ईश्वर में समर्पित हो जाना। सोते जागते उठते बैठते प्रभु का ध्यान करना। सभी कार्यों को उनमें समर्पित करना। उनको अपना सबकुछ मान लेना। अपना सब कुछ अर्पण करना उनका ही नाम लेना। किसी भी कार्य को केवल उनके लिए ही करना ईश्वर प्राणिधान कहलाता है। इसे ईश्वर आस्था कहते हैं यही ईश्वर प्राणिधान है।

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